प्रसंग-7-प्रेम: निराशा की घड़ी में

प्रेम: निराशा की घड़ी में

पृथ्वी पर पाए जाने वाले प्राणियों के बौद्धिक स्तर और क्षमता को यदि देखा जाए तो मनुष्य का स्थान अग्रणी माना जाता है। मानव मस्तिष्क की विशेषता और प्रतिभा पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रमाणित होती आई है।  मनुष्य ने अपनी बुद्धिमत्ता सदियों सिद्ध की है, लेकिन सर्वाधिक बुद्धिमान कहा जाने वाला मनुष्य जब निराश होता है तो जैसे स्वयं की क्षमताओं को ही भूल बैठता है। निराशा की परिस्थितियों में पड़कर वह स्वयं को इतना दुर्बल मान बैठता है कि उसे अपनी झुकी हुई आशा को सबल करने के लिए और खोए हुए आत्मविश्वास को फिर से प्राप्त करने के लिए किसी के सहयोग की आवश्यकता पड़ जाती है।

            यदि आपने कभी अपने जीवन में या किसी अपने के जीवन में निराशा को निकटता से देख लिया हो तो आपको यह समझने में देर नहीं लगेगी कि आशावादी मनुष्य के लिए भी निराशा का मनोविज्ञान समझना क्यों महत्वपूर्ण है। निराशा व्यक्ति की मानसिकता से खेलती है, जैसे वह उसकी क्षमता को भ्रमित कर के उसे पराजित करने आ बैठी हो। निराशा अच्छे भले कर्मठ को उसके कर्तव्यों से दूर कर देने का दुस्साहस रखती है। निराशा का कारण भले ही छोटा हो या बड़ा, साधारण हो या गंभीर लेकिन उसका प्रभाव इतना तो पड़ता है कि वह छुपाये नहीं छुपता। निराशा की झलकियाँ भी मन पर गहरी नकारात्मक छाप और दबाव बना सकने का सामर्थ्य रखती हैं। निराशा को ललकार कर जाग उठा कोई जुझारू व्यक्ति या उसे सहज अस्वीकार कर देने वाला कोई सरल व्यक्ति ही यह भली भाँति समझता है कि निराशा कोई मन की मेहमान नहीं, बल्कि वह तो ऐसी प्रवृत्ति है जो व्यक्ति की मनोदशा पर अपनी पकड़ मजबूत होते ही जीवन स्तर में बड़ी गिरावट का प्रबंध कर देती है।

             अपनी जीवन यात्रा में निरंतर चलने वाले हमारे प्रयासों के बीच भी जब हमारे भीतर कभी-कभी निराश होने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सकती है तो हमें निराशा की गंभीरता को समझते हुए यह प्रश्न ले लेना चाहिए कि हमारी निराशा की प्रवृत्ति का मूल कारण क्या है? हम निराश क्यों और कब होते हैं? मेरा तो यही मानना है कि जब हम निराशा की ठीक से पहचान और पड़ताल करना सीख लेते हैं तो हमें निराशा की प्रवृत्ति का मूल कारण भी स्पष्ट हो जाता है। मेरी दृष्टि में “निराशा मस्तिष्क की वह नकारात्मक और दबावपूर्ण प्रतिक्रिया है जो असफलता या असमर्थता के प्रभाव में उत्पन्न होती है।“ निराशा तब प्रकट होती है जब या तो हम अपनी उम्मीद के अनुसार परिणाम नहीं पाते हैं या फिर जब हम अपनी क्षमताओं को भूल कर किसी परिस्थिति के दबाव में आ जाते हैं।

            वर्तमान मानव समाज निराशा की गंभीरता को समझता है, वह यह भली प्रकार समझता है कि निराशा का शीघ्र उपाय किया जाना चाहिए ताकि वह प्रभावित व्यक्ति को तनाव और खोखलेपन की ओर ना धकेल दे। हम अब यह समझते हैं कि अपनी संकल्पशक्ति, स्नेह भरे सहयोग और प्रेममय व्यक्तित्व से हम निराशा को जड़ से मिटा सकते हैं।

प्रसंग-7-प्रेम: निराशा की घड़ी में । #Love : relief from #disappointmenthttps://youtu.be/aTOmd625gkg

प्रेममय जीवन में आइए हम प्रेम को यथार्थ रूप में जानें, प्रेम को जिएँ, प्रेम में झूमें, हम प्रेम में डूबें।  

अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं

प्रसंग-1 से लेकर प्रसंग-6 तक हमने यह जान लिया है कि प्रेम क्या होता है, प्रेमी कैसा होता है, प्रेम का क्या महत्व है, प्रेम की कौन-कौन सी अवस्थाएँ होती हैं, और यह कि हमारे जीवन के लक्ष्यों, अवस्थाओं और परिस्थितियों में प्रेम का क्या स्थान है। यह प्रसंग निराशा की परिस्थितियों में होने वाले हमारे अन्तः संघर्ष के प्रति समर्पित है..

            जीवन का यह प्रकट सत्य है कि सभी जीवधारियों में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए और विकसित होने के लिए संघर्ष करने की जन्मजात क्षमता होती है, भले ही उन्हें यह पता हो या न हो। हम मनुष्यों का यह सौभाग्य है कि हम भाषा-ज्ञान, विचार और तर्क करने की शक्ति से सम्पन्न हैं, और इसी शक्ति के प्रयोग से हम यह स्थापित कर पाए हैं कि संघर्ष तो जीवन की उत्पत्ति के समय से ही इसके साथ जुड़ गया था। हम अब इस बात को अपने अनुभवों से जानते हैं कि जीवन को संघर्षों का सामना तो करना ही पड़ता है। अपने जीवन की निरन्तरता से लेकर उसके विकास की लंबी यात्रा से गुजरते हुए हम प्रयास का महत्व समझ जाते हैं, हम विजय का अनुभव करना सीख जाते हैं।

            प्रकृति की व्यवस्था भी बड़ी अद्भुत है कि प्रारम्भ से लेकर जीवन जैसे-जैसे विकसित होता है वैसे-वैसे परिस्थितियाँ उसे परखने और मथने लगती हैं। लेकिन मनुष्यों के अलावा अन्य प्राणियों को देखने पर तो इस बात का पता लगाना भी बहुत मुश्किल जान पड़ता है कि वे निराश होते भी हैं या नहीं। उनके जीवन में निराशा के संकेत दिखाई तक नहीं पड़ते। प्रायः हमारे देखने में यह आता है कि मनुष्य बौद्धिक रूप से इतना विकसित होने के बाद भी अन्य प्राणियों की तुलना में कहीं अधिक दुखी और निराश हो जाता है और प्रकट रूप से उसके व्यवहार में भी यह झलकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मानव मस्तिष्क अभी विकास के उस पड़ाव पर है जहाँ उसकी योग्यता तो बहुत है लेकिन उसका उपयोग प्रभावी रूप से करना उसे अभी नहीं आया है?

            अपने अनुभव की बात कहूँ तो हमारी मानसिक प्रवृत्तियाँ कभी-कभी इस बात का संकेत देती हैं कि हमें अपनी मानसिकता को समझने का कुछ प्रयास तो अवश्य करना चाहिए ताकि हम कम से कम इतना तो जान पायें कि अपने व्यक्तिगत मनोजगत में खोए हुए हम कहीं व्यावहारिक जगत में सिमटते तो नहीं जा रहे? ताकि हम इस बात से आश्वस्त हो जाएँ कि अपने जीवन के वर्तमान पड़ाव पर पहुँच कर हम अपनी बौद्धिक क्षमताओं का सही उपयोग कर पा रहे हैं और हम यह सुनिश्चित कर सकें कि हमारी मनोदशा हमारी विकास यात्रा में हमारी मार्गदर्शक है न कि हमारा भावनात्मक भार जिसे हम ढोए जा रहे हैं। स्वयं को समझने के हमारे छोटे से प्रयास से ही हमें अपने जीवन को संतुलित कर लेने का अवसर मिल जाता है।

कभी-कभी अपने संघर्ष पथ पर चलते हुए अपनी व्याकुलता में पड़कर कुछ समय के लिए हमें ऐसा लगने लगता है कि हम अकेले और असमर्थ हो रहे हैं, जैसे हम यह ही भूल बैठते हैं कि स्वयं को सम्हालें भी तो कैसे? अब कोई और ही हमें सम्हाल ले, कोई व्यथा सुनने वाला ही मिल जाए तो बड़ी राहत हो। परिस्थितियों के मकड़जाल से घिरे हुए हम यह विश्वास तक नहीं कर पाते कि हमारे प्रयासों के साथ-साथ हमारा धैर्य हमें सम्हाल लेगा। व्याकुलता की आकस्मिकता धैर्य के धाम में ठहर जाने का अवसर ही नहीं देती, धैर्य भी जैसे अदृश्य ही हो जाता है, उसे थामें भी तो कैसे? उसका आश्रय लें भी तो कैसे? अपने मन के चक्रवातों में उलझे हुए हम अपनी सामर्थ्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं, हम इस तथ्य को ही भूल जाते हैं कि थोड़ा धैर्य धारण कर लेने पर समय भी अनुकूल और सहायक सिद्ध होने लगता है।             

                                                       घाव स्वतः भरता सदा रुके रक्त का स्राव
जीवन सोए ओढ़ के तन के मन के घाव

-II प्रेम सारावली II

जीवन के घटनाक्रमों में समय का भी विशेष महत्व और योगदान होता है, हमारा धैर्य और समय की उपयुक्तता हमें जीवन भर इस बात का प्रमाण देते हैं कि कुछ चीजें समय की अनुकूलता से ही संभव होती हैं। प्रकृति की व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि हमारे शरीर के तथा मन के घाव भी समय के साथ स्वतः ही भरते हैं और घावों से बहता रक्त भी अपने आप थम जाता है, फिर यह भी क्या कम है कि तन और मन पर गहरे घाव और पीड़ा ले कर हम सो भी जाते हैं।  

            लेकिन निराश हुआ विद्रोही मन प्रायः सकारात्मकता से रूठा-रूठा फिरता है, दुर्बलता और अनिच्छा की प्रवृति से सना हुआ निराश मन तो मानवता के अस्तित्व पर भी शिकायतों का अंबार लगा देता है, उसे सभी से शिकायत है, प्रकृति से, उसके नियमों से और उसकी व्यवस्था से भी। उसे स्वयं की दुर्दशा पर भी आपत्ति है, कोई आश्चर्य न कीजिए जो वह सेवा को मूर्खता कह बैठे, सहयोग को अवसर की भूलों में गिन ले और प्रेम को भावुकता और दुर्बलता की जड़ घोषित कर दे। क्या आश्चर्य जो वह आरोप लगा दे कि जीवन प्रकृति की दुर्घटना है!

निराशा से बचाव या उसका निवारण मुख्यतः दो विधियों से किया जा सकता है। दोनों ही विधियाँ अपना-अपना महत्व रखती हैं और वे व्यक्ति के दृष्टिकोण तथा उसकी परिस्थितियों के अनुसार अपना प्रभाव दिखाती हैं। पहली विधि यह कि निराशा के संकेत मिलते ही उसे पूरी क्षमता से चुनौती देना और उसके मिट जाने तक प्रयासरत रहना। इस विधि में संकल्पशक्ति का प्रयोग होता है जो निराशा को समूल उखाड़ फेंकती है। भले ही कितना भी समय लगे लेकिन हार न मानने वाला व्यक्ति इस विधि का प्रयोग कर के निराशा को चुनौती देता रहता है और मन में निराशा को पैर जमाने ही नहीं देता। दूसरी विधि यह कि निराशा को महत्व ही न दिया जाए और उसे इस तथ्य का आश्रय लेकर अस्वीकार कर दिया जाए कि वह तो मन की नकारात्मक और दबावपूर्ण प्रतिक्रिया मात्र है। इस विधि में इस सिद्धांत का निरंतर अभ्यास किया जाता है कि हमारी असफलता और असमर्थता तो हमें बेहतर प्रयास करना सिखाते हैं तथा निराशा केवल उन्हें प्रभावित करती है जो उसे ताकते रहते हैं।

                                                     पंथी जो विचलित करे व्याकुल मन की आग
रात्रि व्यथित मन को सुला भोर प्रेम में जाग

-II प्रेम सारावली II

अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए किसी पथिक पर जब मन की व्याकुलता अपना प्रभाव छोड़ने लगे तो थके हुए पथिक को निराशा की उस रात्रि रूपी घड़ी में अपने मन को धैर्य पूर्वक विश्राम करने देना चाहिए, फिर समय के बदलाव को समझते हुए प्रयास में प्रेमपूर्वक सक्रिय हो जाना चाहिए।

                                                      जग में रम यह अनुभव मिलता
मन है तन पर सुख-दुख सिलता
मौज के रंग में मन रंगता रंगरेज हूँ
मैं प्रेम हूँ

-II मैं प्रेम हूँ II

प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि इस जगत का गहराई से अनुभव कर लेने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारा मन इतना सूक्ष्म, गतिशील और शक्तिशाली होता है कि वह भौतिक सुखों और दुखों को हम से अलग नहीं होने देता, हम कभी सुखों और कभी दुखों के फेर में पड़े ही रहते हैं। मैं वह रंगरेज हूँ जो मन को आनंद की तरंग का रंग-रूप दे देता हूँ।

मानव विकास के कालखण्ड में यह समय की अनुकूलता ही थी कि मानव के मनोजगत में प्रेम प्रतिष्ठित हो पाया। हमारे जीवन का स्वरूप क्या होता यदि संसार में भावनात्मक जुड़ाव, सहयोग की भावना और प्रेम न होता? क्या जीवन को उस स्तर की देखभाल और सहायता मिलती जो शारीरिक ही नहीं बल्कि वह मानसिक संपन्नता भी देती जो स्वस्थ समाज का निर्माण और विकास कर पाती? हमें अपनी संघर्ष यात्रा में जन्मी और विकसित हुईं स्नेहपूर्ण भावनाओं का धन्यवाद करना चाहिए जिन्होंने ‘सहयोग की प्रवृत्ति’ का आविष्कार किया और एक दूसरे का सहयोग करते-करते हमने प्रेम के सौन्दर्य का अनुभव करना सीख लिया।

सामाजिक जीवन जी रहे व्यक्ति को निराशा की घड़ी में प्रेम का महत्व और महिमा स्पष्ट हो जाते है। यदि निराशा का कारण किसी अन्य से हो जाने वाली पीड़ा हो तो सम्बन्धित व्यक्ति का या किसी अपने का स्नेह और सहयोग उस निराशा को अधिक देर टिकने नहीं देता। यदि निराशा का कारण स्वयं की असफलता हो तो प्रयासों से प्रेम और किसी अपने का प्रेम भरा सहयोग उस निराशा को दूर कर देता है, और यदि निराशा का कारण कोई टूटी हुई उम्मीद या असमर्थता हो तथा कोई बाहरी सहयोग भी न मिल रहा हो तो स्वयं के भीतर ही सदैव साथी बन कर रहने वाली अन्तः चेतना का आश्रय, प्रार्थना और विश्वास भी उस निराशा को मिटा देता है, तब निराशा से मुक्त हुआ व्यक्ति अन्तः चेतना के प्रति अटूट प्रेम और विश्वास स्थापित कर लेता है।

                                                      त्रास की चढ़ती निशा में
वेदना का हाथ थामे
असहाय का हो कर सखा साकार हूँ
मैं प्रेम हूँ

-II मैं प्रेम हूँ II

प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि जब कोई व्यक्ति संघर्षों से जूझते हुए स्वयं को अकेला, दुखी, असमर्थ और चुनौतियों से घिरा हुआ पाता है तब मैं मित्र रूप में प्रतिष्ठित होकर उसके दुर्बल और व्यथित मन को सहारा देता हूँ।

                                                     कोई तरसे छाँव को मिले किसी को गाँव
अपनी-अपनी पहुँच है अपने-अपने पाँव

-II प्रेम सारावली II

अपने-अपने जीवन पथ पर चलते हुए व्यक्तियों में से कुछ तो छाँव रूपी सहायता के लिए भी तरसते दिखते हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्हें छाँव ही नहीं बल्कि लक्ष्य रूपी गाँव मिल जाता है जहाँ उनका जीवन समृद्ध और सार्थक हो जाता है, जीवन के इन दोनों दृश्यों में हमारे प्रयास करने का महत्व स्पष्ट हो जाता है।

            मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि अपने जीवन में संघर्षरत प्रत्येक मानव को सामर्थ्य और सहयोग की ऐसी भावना मिले जो उसे जीवन में कभी निराश न होने दे। प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव मिले कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I

सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!

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